धर्म,जाति के नाम पर अपराधियों को छोड़ना अनैतिक

देश के राजनीतिक हालात नैतिक पतन के चरम बिंदु पर हैं। ऐसा शायद इसलिए हो रहा है क्योंकि राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की आवाज को जनता अनसुना कर रही है। यह भी हो सकता है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार और पतन के कारण नेताओं के भीतर भय बढ़ रहा हो और असुरक्षा का भाव हावी हो गया हो? नेता हो या प्रशासनिक अधिकारी उनके पास भ्रष्टाचार करने और पैसा कमाने के लिए एक मात्र जरिया सरकार ही होती है। नेता अपराधियों को संरक्षण भी तब ही दे सकते हैं जब उनके पास सत्ता की ताकत हो। सत्ता भी उन्हें ही नसीब होती है जिनके पास पैसा है अथवा बाहुबल है। यह धारणा मजबूत होती जा रही है। कारण जनता के बीच काम करने वाले नेताओं को कई बार धर्म और जाति के कारण ही हार का सामना करना पड़ता है।

राजनीति में अपराधीकरण रोकने के लिए जो कानून डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने बनाया था,उसका कुछ कुछ असर तो दिखने लगा है। ये बात और है कि राहुल गांधी इस कानून के चपेट में अपनी चूक के कारण आ गए। अन्यथा उनकी बात ऐसी नहीं थी,जो राजनीति में असमान्य मानी जाए। विपक्ष का हर छोटा बड़ा नेता सरकार को घेरने के लिए कई तरह के जुमलों का उपयोग करते हैं। इस आधार पर शायद कोई न्यायाधीश भविष्य में हर आदमी के खाते में पंद्रह लाख रुपए आने के बयान पर पर नेताओं को दोषी ठहरा कर सजा सुना दे? इसकी कल्पना करने में हर्ज क्या है? झूठे आरोपों लगाने से नेताओं को बचना चाहिए। आरोप सहीं है तो डरना भी नहीं चाहिए। राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित किए जाने के बाद उन्हें अपराधी बताने की कोशिश भी देखने को मिल रही है। क्या राहुल गांधी वाकई अपराधी हैं? राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए जो कानून बना उसकी मंशा तो अफजल अंसारी जैसे माफिया को सदन में जाने से रोकने की है। इस तरह की अयोग्यता पर आमजन की प्रतिक्रिया सकारात्मक ही आती है।

अफजल अंसारी जैसे माफिया नेता हर राज्य में हैं। जो सांसद,विधायक बन गए उनके अपराधों पर सुनवाई के लिए तो विशेष अदालतें बनी हुई हैं। लेकिन,जो जनप्रतिनिधि बनने की कगार पर हैं,उनके बारे में राजनीतिक दलों को अपनी सोच बदलने की जरूरत है। यह सोच बदलने के लिए राजनीतिक दलों को जन्नोमुखी होना पड़ेगा। सोशल मीडिया के इस दौर में राजनीतिक दलों की जनता और उनसे जुड़े मुद्दों पर पकड़ कमजोर होती जा रही है। राजनीति जन सेवा के बजाए व्यवसाय का रूप ले चुकी है। परिवारवाद राजनीति के व्यवसायीकरण का ही उदाहरण है। इस बीमारी की चपेट में हर राजनीतिक दल के नेता हैं। स्वभाविक रूप से इस प्रक्रिया में अपराधियों को भी संरक्षण मिल जाता है। अपराधियों का कोई धर्म नहीं होता। राजनीति में भी धर्म नहीं होना चाहिए। लेकिन,इन दिनों नेता सबसे ज्यादा धर्म का उपयोग कर रहे हैं।

धर्म का पालन नहीं कर रहे। राजधर्म का पालन करते तो चुनाव जीतने के लिए अपराधियों का सहारा नहीं लेना पड़ता। गुजरात में बिलकिस बानो मामले से जुड़े आरोपियों को छोड़ने के पीछे सरकार की मंशा क्या हो सकती है? क्या सरकार यह संदेश देना चाहती थी कि बहुसंख्यक समाज का हर गुनाह माफ है? चूंकि अपराध अल्पसंख्यक के खिलाफ हुआ है तो क्या सरकार को सजा माफी के वक्त इस तथ्य को ध्यान नहीं रखना चाहिए कि इस कदम से कहीं असुरक्षा का भाव तो पैदा नहीं होगा? गुजरात सरकार ने धर्म के आधार पर सजा माफ की तो बिहार सरकार ने जातिगत वोटों के लिए आनंद मोहन को समय से पहले जेल से बाहर निकाल दिया। दोनों ही मामले सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं। जेल मैनुअल में सरकार को सजा माफी का अधिकार राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए तो नहीं दिया गया। कैदी का आचरण और व्यवहार को भी ध्यान में रखा जाता है। जो सजायाफ्ता लोग राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं उन्हें पैरोल भी नियमों को दरकिनार कर मिल जाता है। बलात्कार के आरोपी बाबा गुरमीत राम रहीम को अब तक छह बार पैरोल मिल चुका है। सभी इस बात को जानते हैं कि गुरमीत राम रहीम को पैरोल चुनाव में लाभ के लिए ही दिया जा रहा है। अपराधियों की सजा कम करना कोई नई बात नहीं है। कई राज्य सालों से स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर अच्छे चाल चलन वाले अपराधियों की सजा कम किया करते हैं। इसकी वजह भी वे सार्वजनिक तौर पर बताते रहे हैं। लेकिन,बिलकिस बानो के अपराधियों की सजा माफ करने के कारण गुजरात सरकार सुप्रीम कोर्ट में बताने से बच रही है। कुर्सी के लिए अनैतिक निर्णय और समझौते भी किए जा रहे हैं। इससे लोकतंत्र को खतरा बढ़ेगा ही।

~ Dinesh Gupta (Power Gallery)